राजस्थान के वस्त्र
राजस्थान के वस्त्र
अगर हम राजस्थान के वस्त्रों की बात करें तो तमाम आधुनिकता के बाद भी यहां वेशभूषा पर संस्कृति की अमित छाप बरकरार हैं। राजस्थानी वेशभूषा की सबसे खास बात यह है, कि इसका रंग - बिरंगापन है ।
वैसे तो सभी रंग राजस्थान में प्रयुक्त होते हैं पर लाल रंग में जितनी विविधता है वह जितने प्रकार मिलते है वह अद्भुत है इसलिए तो कहा गया है कि मारू थारे देश में उपजे तीन रतन,इक ढोला, दुजी मारवण, तीजो कसूमल रंग ( कसूमल - लाल ) ।
राजस्थानी वस्त्र
• फूहलि, फूहली : -
बहन को राखी प्राप्त होने पर भाई द्वारा बहन को भेजी जाने वाली पोशाक।
• ऊपरणी -
पगड़ी पर बाँधा जाने वाला वस्त्र ।
• एरंडी -
ओढ़ने का वस्त्र विशेष
• कटारीभांत -
एक प्रकार की ओढ्नी।
• फेंटियौ -
घाघरे के नीचे पहनने का लंबा लपेटने का वस्
• कोरणियाँ -
वधू के मामा की ओर से दी जाने वाली पोशाक।
• बड़ा बेस -
विवाह के समय वधू के लिए बनाई गई पोशाक।
• कोळजोळियाँ -
विवाह के समय दुल्हन के पहनने का वस्त्र ।
• गुलीबंद - सदी से बचाव के लिए कान पर डाला जाने वाला वस्त्र ( मफलर ) ।
• बरड़ियौ -
मेघवाल जाति में दूल्हे के ओढ़ने का एक वस्त्र ।
• बरड़ी -
काली व श्वेत चौकियों वाला एक वस्त्र ।
• चांदणी -
पर्दानशीन स्त्रियों के पर्दा करने का वस्त्र ।
• जांभौ - एक प्रकार का घेरदार पहनावा।
• बांनौ - दूल्हे या दुल्हन की वेशभूषा ।
• बागी - चुन्टदार घेरे वाला पुरुषों के सिर की पगड़ी।
● झूळा - पहनने का एक वस्त्र ।
• ठेपाड़ा - एक प्रकार का वस्त्र ।
• बींदबागौ - दूल्हे की पोशाक।
• तनसुख - फूलदार वस्त्र ।
• बींदोळी - दुल्हे - दुल्हन की पोशाक।
• ताखी - छोटे बच्चों का सिर ढकने का वस्त्र विशेष।
• बुरका - पर्दावाली मुसलमान स्त्रियों का एक पहनावा
जिसमें सिर से पाँव तक शरीर ढका रहता है।
• दुकूल - दुपट्टा, ओढ्नी।
• दुमांभी - एक प्रकार का वस्त्र विशेष ।
• भाकलियाँ - ऊंट के बालों का बना एक विद्यावन
• दौहड़ - ओढ़ने हेतु आपस में सिले हुए दो सूती वस्त्र ।
• मंदील - जरदोजी का वस्त्र विशेष
• धनक - स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र विशेष।
• लतौ - फटा - पुराना वस्त्र ।
• घाबळ - ऊनी वस्त्र विशेष ।
• लपेटौ - सिर पर बाँधने का वस्त्र, साफा, पगड़ी।
• लहरियो - रंग-बिरंगी व तिरछी रेखाओं की ओढ़नी।
• धूंसौ - ओढ़ने का ऊनी वस्त्र विशेष ।
• धूमाळौ - सर्दी में ओढ़ने का मोटा वस्त्र ।
• लांग - धोती या लंगोट का यह छोर जो दोनों जांघों के बीच से कमर के दोनों ओर बंधा रहता है।
• धोती - पुरुषों का वस्त्र, साड़ी।
• पगपांवड़ौ - किसी का स्वागत करने के लिए रास्ते में विछाया जाने वाला वस्त्र ।
• लाळियौ - शिशुओं की छाती पर लटका रहने वाला एक छोटा वस्त्र
• पछेवड़ी - मोटे सूती कपड़े की चादर ।
• लूंगी - एक प्रकार का अधोवस्त्र तहमद।
• पटु - ओढ़ने का ऊनी वस्त्र ।
• लूगड़ी - स्त्रियों की ओढ़नी ।
• पांतियाँ - भोजन के लिए पंक्तिबद्ध बैठाने के लिए बिछाने का लंबा वस्त्र ।
• लोई - स्त्रियों के ओढ़ने का ऊनी वस्त्र विशेष ।
• वाटवागौ - विवाह मंडप में अग्नि परिक्रमा के पश्चात् कन्या को पहनाई जाने वाली पोशाक।
• पोमचौ - स्त्रियों की ओढ़नी ।
• बांडियौ - एक प्रकार का छोटी बांह का अंगरखा।
• सोवड़, सौड़ - रजाई के नीचे ओढ़ने का वस्त्र या पुरुषों के वस्त्र ( कम्बल ) ।
पुरुषों के वस्त्र :-
• पगड़ी, पाग, पंचा, बागा या साफा -
सिर को ढकने के लिए पहना जाने वाला वस्त्र। यह प्रतिष्ठा का सूचक भी मानी जाती है। सामान्यतः विवाहोत्सव पर मोठड़े की पगड़ी, श्रावण में लहरिया की पगड़ी, दशहरे पर मदील व होली पर फूल छपाई वाली पगड़ी पहनी जाती है।
• अंगरखी-
शरीर के ऊपरी भाग में पहना जाने वाला वस्त्र। इसे 'बुगतरी' भी कहा जाता है।
● अचकन -
अंगरखी का ही उत्तर रूप अचकन है।
● धोती -
पुरुषों द्वारा कमर पर पहना जाने वाला वस्त्र जो साधारणतः श्वेत रंग की होती है।
● चुगा या चोगा -
अंगरखी के ऊपर पहना जाने वाला वस्त्र।
● जामा -
शरीर के ऊपरी भाग में पहना जाने वाला वस्त्र, जिसमें ऊपर चोली होती और नीचे घेर जो घुटने तक आता था।
●पायजामा
अंगरखी, चुगा और जामे के नीचे कमर व पैरों में पहना जाने वाला वस्त्र।
● बिरजस या ब्रीचेस -
पायजामे के स्थान पर काम में लिया जाने वाला वस्त्र।
● पछेवड़ा -
सर्दी से बचाव हेतु रेजे का बना चद्दरनुमा शरीर के ऊपर डाला जाने वाला वस्त्र
● घुघी -
ऊन का बना वस्त्र जो सर्दी या वर्षा से बचाव हेतु ओढ़ा जाता है।
● कमरबंद या पटका -
जामा या अंगरखी के ऊपर कमर पर बाँधा जाने वाला वस्त्र, जिसमें तलवार या कटार खुसी होती थी।
● आवमसुख
यह प्राय: तेज सर्दी में ओढ़ा जाता है। इसकी तुलना कश्मीरी फिरन से की जा सकती है।
स्त्रियों के वस्त्र :-
● कुर्ती और काँचली -
शरीर के ऊपरी हिस्से में पहना जाने वाला वस्त्र।
● घाघरा -
कमर के नीचे एड़ी तक पहना जाने वाला घेरदार वस्त्र, जो कई कलियों को जोड़कर बनाया जाता है।
● ओड़नी, लुगड़ी, साड़ी -
कुर्ती और काँचली तथा घाघरे के ऊपर शरीर पर पहना जाने वाला वस्त्र पोमचा, लहरिया, चुनरी, मोठड़ा, धनक आदि कुछ विशिष्ट लोकप्रिय ओढ़नियाँ हैं। पोमचा सद्य:प्रसूता द्वारा पहना जाता है। लहरिया श्रावण मास में तीज पर विशेष रूप से पहना जाता है। लहरिये की धारियाँ जब एक दूसरे को काटती हुई बनाई जाती है तो वह मोठड़ा कहलाता है। जोबनेर की फूल की साड़ी व सवाईमाधोपुर की पक्के काले रंग के दुपट्टों पर छापे की ' सूंठ की साड़ियाँ' प्रसिद्ध है।
● तिलका -
यह मुस्लिम औरतों का पहनावा है।
आदिवासियों के मुख्य वस्त्र :-
आदिवासी पुरुषों के वस्त्र : -
• अंगोछा : यह पुरुषों का वस्त्र है, जिसे वे सिर पर बाँधते हैं। इसमें केरी भांत का अंगोछा बहुत लोकप्रिय है।
•अंगरखा: बदन पर पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला काले रंग का अंगवस्त्र, जिस पर सफेद धागे से कढ़ाई जाती है।
अदिवासी स्त्रियों के वस्त्र :-
• जमसाई साड़ी -
विवाह के समय पहना जाने वाला वस्त्र, जिसमें लाल जमीन पर फूल पत्तियों युक्त बेल होती है।
● नान्दणा या नानड़ा -
यह आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त होने वाला प्राचीनतम वस्त्र है। यह नीले रंग की छींट होती है।
● कटकी -
यह अविवाहित युवतियों और बालिकाओं की ओढ़नी है, जिसकी जमीन लाल और काले व सफेद रंग की
बूटियाँ होती हैं। इसे पावली भाँत की ओढ़नी भी कहते हैं।
● रेनसाई -
यह लहँगे की ही छींट है, जिसमें काले रंग की जमीन पर लाल व भूरे की बूटियाँ बनी होती है।
● लूगड़ा -
इसे अंगोछा साड़ी भी कहते हैं। यह विवाहित स्त्रियों का पहनावा है। जिसमें सफेद जमीन पर लाल बूटे छपेहोते हैं।
● ज्वार भाँत की ओढ़नी -
इस ओढ़नी में सफेद रंग की ज्वार के दानों जैसी छोटी-छोटी बिन्दी वाली जमीन और लाल काले रंग की वेल-बूटियाँ होती हैं।
● लहर भाँतकी की ओढ़नी - इस ओढ़नी में ज्वार भांत जैसी बिन्दियों से लहरिया बना होता है।
● केरी की भाँत की ओढ़नी -
इसकी किनारी व पल्लू में केरी तथा जमीन में ज्वार भांत जैसी बिन्दियाँ होती है। जमीन लाल रंग की व बिन्दिया सफेद व पीले रंग की होती है।
● तारा भाँत की ओढ़नी -
आदिवासी स्त्रियों की लोकप्रिय ओढ़नी है। इसमें जमीन भूरी लाल तथा किनारों का छोर काला षट्कोणीय आकृति वाला तारों जैसा होता है।
● चूनड़ -
भीलों की चूनड़, जिसमें सफेद बिन्दिया व जमीन का रंग कत्थई लाल होता है।
अन्य वस्त्र -
● कटार छींट -
छींटदार इस डिजाइन के कपड़े को मुख्यतः घाघरे बनते है। कुम्हार, चौधरी, राइका, मोइला (मुस्लिम कहार), प्रजापति, मेघवाल व विश्नोई जाति की महिलाओं में इसका विशेष रिवाज है।
● बंधेज - बंधेज एक तकनीक है जिसमें बाँध कर रंग को रोक जाता है और इसमें खत व बूँद की बँधाई के अनुसार अलंकरण बनते हैं। ये कई प्रकार के हैं ।
● लहरिया -
विभिन्न रंगों की आड़ी धारियों से रंगा हुआ कपड़ा लहरिया कहलाता है। यदि आड़ी धारियाँ खंजरीनुमा ढंग से रंगी जाएँ तो गंडादर कहलाता है। जयपुर में 'समुद्र लहर' में नाम का लहरिया रंगा जाता है। लहरिया ओढ़नी व पगड़ी दोनों ही रूप में प्रयुक्त होता है।
● मोठड़ा -
यदि लहरिया की धारियाँ एक-दूसरे को काटती हुई हों तो उसे मोठड़ा कहते हैं।
● चुनरी -
बूँदों के आधार पर बनी डिजाइन चुनरी कहलाती है। जोधपुर की चुत्तरी प्रसिद्ध है।
● धनक -
बड़ी-बड़ी चौकोर बूंदों से युक्त अलंकरण धनक कहलाता है।
● पोमचा -
कमल पुष्प के अभिप्राय को व्यक्त करने वाली ओढ़नी को पोमचा कहते है। यह दो प्रकार का होता है -
1. लाल व गुलाबी रंगों से बना हुआ तथा 2. लाल व पोले रंगों से बना हुआ
दोनों ही प्रकार के पोमचों में किनारा तथा बीच के पुष्प लाल रंग से बनाए जाते हैं जबकि धरती गुलाबी या पीली हो सकती है। बच्चे के जन्म पर बच्चे की माँ के लिए उसके पीहर से लाल बोर पल्लों वाला पीला पोमचा भेजा जाता है, जिसे पीला भी कहते हैं।
● जोधपुरी बंधेज -
बंधेज का काम मूल रूप से चढ़वा जाति के मुसलमानों द्वारा किया जाता है। माना जाता है कि यह कला मुल्तान से मारवाड़ में आई।
जोधपुरी बंधेज की चुनड़ी, साफे तथा लहरिये जोधपुरी हस्तकला में सबसे पहला स्थान रखते हैं। बंधेजकला द्वारा पाँच रंगों से रंगा गया साफा 'बावरा' कहलाता है। दो बार रंग निकालकर बंधेज किया हुआ साफा 'मोठरा' कहलाता है।
केवल एक रंग से तैयार साफा जिसमें सफेद बुन्दे होती हैं, राजशाही कहलाता है।
● चीड़ का पोमचा -
हाड़ोती अंचल में पहले विधवा महिला द्वारा ओढ़ी जाने वाली काले रंग की ओढ़नी ।
● पँवरी -
दुल्हन द्वारा पहनी जाने वाली लाल या गुलाबी रंग की ओढ़नी।
● टेरीकॉट खादी -
मांगरोल (बारां) में टेरीकाट खादी का उत्पादन होता है जो किसी मिल द्वारा उत्पादित टेरीकाट से किसी भी मायने में कम नहीं है।
प्रमुख बंधेज केन्द्र :-
बंधेज के प्रमुख केन्द्र जोधपुर एवं इनके अलावा निम्न स्थानों पर भी बंधेज का कार्य होता है।
• चुरू -
यहाँ पीला पोमचा व ओढ़नी की रंगाई होती है , स्थानीय जाट समुदाय में लोकप्रिय है।
• नागौर -
नागौर में फागण्या पोमचा, पीला, लाडू का ओर मोतीचूर का पीला तथा हरा-पीला का ओढ़ना तथा साफा के रंगाई होती है।
• शेखावाटी -
शेखावाटी में सीकर बंधेज का प्रमुख केन्द्र यहाँ की बनी तिबारी की बंधेज, चौपड़ की चुनरी प्रसिद्ध शेखावाटी में ही मुकुन्दगढ़ और लक्ष्मणगढ़ का 'पाटोदा का लूगड़ा' प्रसिद्ध है। पाटोदा का लूगड़ा, पीले पोमचे का हो एक प्रकार है जिसमें दो-तीन पत्तियों, फूलों और चिड़ियों का संयोजन कर मनोहारी अलंकरण बनाये जाते हैं।
• जयपुर जिले के दो कस्बों बगरू और साँगानेर को रंगाई-छपाई के काम में विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। सफेद, मखनिया अथवा हल्के रंगों पर बारीक बूटियाँ सांगानेर की विशेषता थी। अब सांगानेरी प्रिंट में प्राय: काला और लाल दो रंग ही ज्यादा काम आते हैं। बगरू में मूलत: स्याह-बेगू (लाल-काले) और हरे नीले रंग की मैण की फड़द (घाघरे की छींट) की छपाई होती थी।
• अलवर 'दोरुखी रंगाई' के लिए प्रसिद्ध रहा है।
• अलवर जिला कच्चे (नकली जरी) और पक्के (असली जरी)
चिल्ले (जरीदार पल्लू) वाली पगड़ियों के लिए प्रसिद्ध रहा है।
• सांगानेरी एवं बगरू के छापे (लकड़ी के ठप्पे) प्रायः गुरुजन,
शीशम, रोहिड़ा या सागवान की लकड़ी के बनाये जाते है।
• दाबू :- कपड़ों पर रंगाई के दौरान जिस स्थान पर रंग नहीं चढ़ाना हो उसे किसी पदार्थ (मोम, मिट्टी आदि) से ढंक देते हैं। ढँकने की यह वस्तु दाबू कहलाती है एवं इस प्रकार की रंगाई 'दाबू प्रिंट' कहलाती है।
राजस्थान में तीन तरह का दाबू प्रयुक्त होता है- (1) सवाईमाधोपुर में मोम का। (2) बालोतरा में मिट्टी का (3) बगरू व सांगानेर में गेहूं के बींधण का।
पगड़ियाँ -
त्यौहारों, उत्सवों व ऋतुओं के अनुसार विभिन्न प्रकार की पगड़ियाँ धारण की जाती है। तीज पर लहरिया, दशहरे पर मदील अथवा मझल छपाई की सलमा-सितारे के फूलों से कढ़ी हुई, होली पर सफेद या पौली, वर्षा ऋतु में हरी या कसुमल, सर्दियों में कसुम्बी तथा गर्मियों में केसरिया पाग बाँधी जाती है। विवाह उत्सव पर मोठड़ा बांधा जाता है। शोक के अवसर पर सफेद साफे अथवा पगड़ियाँ बाँधी जाती है। चीरा और फेंटा भी उच्च व धनी वर्ग के लोगों में प्रचलित है। राजपूत सामान्यत: केसरिया पाग धारण करते है। जोधपुर में चूंदड़ी का साफा बहुतायत से प्रयोग होता है।
• विभिन्न प्रकार की पगड़िया अटपटी, अमरशाही, उदेशाही खंजर शाही, शिवशाही, विजयशाही एवं शाहजहानी। पगड़िया को चमकीली बनाने हेतु तुर्रे, सरपेच, बाला बन्दी, धुगधुगी, गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन आदि का प्रयोग किया जाता है। पगड़ी गौरव एवं प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता है।
• मदील: -
दशहरे के अवसर पर बाँधी जाने वाली पगड़ी ।
• मोठड़े की पगड़ी विवाहोत्सव पर पहने जाने वाली पगड़ी ।
• लहरिये की पगड़ी तीज पर विशेष तौर से पहनी जाती है। •
• राजाशाही पगड़ी जयपुर में प्रचलित एक खास प्रकार पगड़ी जिसमें लाल रंग के लहरिये बने होते थे। संभवत: पहले केवल राजाओं के लिए ही बनती थी।
● मेवाड़ में प्रचलित विभिन्न प्रकार की पगड़िया : -
•उदयशाही पगड़ी महाराणा उदयसिंह के समय प्रचलित
• अमरशाही पगड़ी महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल . में प्रचलित।
• अरसीशाही पगड़ी महाराणा अरिसिंह के समय प्रचलित ।
• भीमशाही पगड़ी- महाराणा भीमसिंह के काल में प्रचलित ।
• स्वरूपशाही पगड़ी-महाराणा स्वरूपसिंह के समय प्रचलित
• मेवाड़ महाराणा के पगड़ी बाँधने वाला व्यक्ति' खबदार' कहलाता है ।
• अंगरखी (या अंगरक्षी) के विभिन्न प्रकार- तनसुख, दुताई, गावा, गदर, गिरजाई, डोढ़ी, कानो, डगला आदि।
• खेस, शाल, पामडी : -
शरद ऋतु में कंधे पर डाले जाने वाले वस्त्र ।
● चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर-पटोरी, चोरसो, ओढ़नी, चंदड़ी, धोरखाली आदि साड़ी के विभिन्न नाम है।
• स्त्रियों के परिधानों के लिए प्रचलित कई प्रकार के कपड़े थे जामदानी, किमखाब, टसर, छींट, मलमल, मखमल, पारचा, मसरु, चिक-इलायची, महमूदी चिक, मीर-ए-बादल, नोरंगशाही, बहादुरशाही, फरुकशाही छींट, वापत्ता आदि।
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