राजस्थान के प्रमुख रीति रिवाज एवं प्रथाएँ
प्रथाएं एवं रीति-रिवाज
नाता प्रथा :-
डावरिया प्रथा :-
केसरिया करना :-
राजपूत योद्धाओं द्वारा पराजय की स्थिति में केसरिया वस्त्र धारण कर शत्रु पर टूट पड़ना व उन्हें मौत के घाट उतारते हुए स्वयं भी असिधरा का आलिंगन करना ।
जौहर प्रथा :-
सती प्रथा :-
राजस्थान में इस प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन राजपूत जाति में था। राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। बाद में राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से इस प्रथा पर रोक लगाई।
समाधि प्रथा :-
पुरुष या साधु महात्मा द्वारा मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से जल समाधि या भू-समाधि लेना। सर्वप्रथम सन् 1844 में जयपुर राज्य ने समाधि प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।
कन्या वध :-
राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा राज्य में सन् 1833 में तथा बूँदी राज्य में 1834 ई. में कन्या वध करने को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया ।
त्याग प्रथा :-
सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में 'त्याग प्रथा' को सीमित करने का प्रयास किया गया।
डाकन प्रथा :-
सर्वप्रथम अप्रैल, 1853 ई. में मेवाड़ में कमान्डेन्ट जे.सी. ब्रुक ने खैरवाड़ा (उदयपुर) मे इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।
बाल विवाह :-
अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने 1929 ई. में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया, जो 'शारदा एक्ट' के नाम से प्रसिद्ध है।
विधवा विवाह :-
लार्ड डलहौजी ने स्त्रियों को वैधव्य के कष्टपूर्ण जीवन से मुक्ति प्रदान करने हेतु सन् 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया। यह श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयत्नों का परिणाम था।
औरतों व बच्चों का क्रय - विक्रय :-
मध्यकाल से 19वीं सदी के मध्य तक राजस्थान में प्रचलित कोटा राज्य में 1831 ई. में इस कुप्रथा पर रोक लगाई गई थी।
दास प्रथा :-
सन् 1832 में विलियम बैंटिक ने दास प्रथा पर रोक लगाई। राजस्थान में भी 1832 ई. में सर्वप्रथम हाड़ौती क्षेत्र में कोटा व बूँदी राज्यों ने दास प्रथा पर रोक लगाई।
' बंधुआ मजदूर प्रथा'' या सागड़ी प्रथा :-
पूंजीपति या महाजन अथवा उच्च कुलीन वर्ग के लोगों द्वारा साधनहीन लोगों को उधार दी गई राशि के बदले या ब्याज की राशि के बदले उस व्यक्ति या उसके परिवार के किसी सदस्य को बिना मजदूरी के अपने यहाँ घरेलू नौकर के रूप में रख लेना बंधुआ मजदूर प्रथा कही जाती थी।
हलमा :-
हलमा, हाँडा या हीड़ा के नाम से पुकारी जाने वाली सामुदायिक सहयोग की परम्परा अपने आप में अद्वितीय है, जिसमें 'हलमाँ करबु है' (हलमा करना है) की हाँक पड़ी नहीं कि परस्पर एक दूसरे के काम में पूरा समुदाय जुड़ जाता है। फिर चाहे घर बनाना हो या खेत जोतना हो या फिर कोई अन्य आयोजन हो, समुदाय के सभी लोग मिलकर निःस्वार्थ रूप से एक दूसरे के कार्यों में सहयोग करते हैं।
वार :-
जनजाति समुदाय की यह अदभुत परम्परा सामूहिक सुरक्षा की प्रतीक है। " मारूढोल " के द्वारा लोगों तक संकट का संदेश पहुंचाया जाता है। 'मारूढोल' विपत्ति का प्रतीक माना जाता है। दोल की आवाज सुनकर दूर-दूर तक छितराई बस्ती के सभी लोग संकटग्रस्ट स्थान की ओर अपने-अपने साधन एवं हथियार लेकर तुरन्त दौड़ पड़ते हैं और किसी भी में विपति यह लोग हर प्रकार का सहयोग कर उस व्यक्ति की मदद करते हैं।
भराड़ी : -
राजस्थान के दक्षिणांचल में भीली जीवन में व्याप्त वैवाहिक भित्ति चित्रण की प्रमुख लोक देवी "भराड़ी"नाम से जानी जाती है। इसका प्रचलन मुख्यतः कुशलगढ़ क्षेत्र की ओर है। जिस घर में भील युवती का विवाह हो रहा होता है, उस घर में भराड़ी' का चितराम जँबाई द्वारा बनाया जाता है। भराड़ी में हल्दी रंग का सर्वाधिक प्रयोग देखने को मिलता है। शकुन की दृष्टि से भराड़ी का मुँह पूर्व की ओर रहता है।
झगड़ा या दावा राशिः -
जब कोई भील दूसरे की स्त्री को भगा ले जाने या स्वयं स्त्री अपने पति को त्याग कर दूसरे पुरुष के साथ चली जाती है, तो विवाहित पुरुष उस दूसरे पुरुष से एक राशि 'झगड़ा' / दावा लेता है, जिसका निर्णय पंचायत करती है।
'छेड़ा फाड़ना' या तलाक :-
जो भील अपनी स्त्री का त्याग करना चाहता है, वह अपनी जाति के पंच लोगों के सामने नई साड़ी रुपया बाँधकर उसको चौड़ाई की तरफ से फाड़कर स्त्री को पहना देता है। इससे यह समझा जाता है कि स्त्री अपने पति द्वारा परित्यक्त कर दी गई है।
नातरा या आणा प्रथा :-
आदिवासियों में विधवा स्त्री का पुनर्विवाह नातरा / आणा कहलाता है।
लोकाई :-
आदिवासियों में मृत्यु पर जो भोज दिया जाता है उसे 'कांदिया' अथवा 'लोकाई' कहा जाता है।
दापा :-
आदिवासी समुदायों में वर पक्ष द्वारा वधू के पिता को दापा (वधू मूल्य) देने की प्रथा प्रचलित है।
मौताणा :-
किसी आदिवासी की किसी दुर्घटना या अन्य कारण से मृत्यु हो जाने पर आदिवासी समाज के द्वारा राशि क्षतिपूर्ति के रूप में आरोपी से वसूली जाती है। यह राशि 'मौताणा' कहलाती है। मौताणा मिलने पर आदिवासी लोग शव को घटना स्थल से हटाते हैं।
जवेरा :-
आदिवासियों द्वारा नवरात्रा अनुष्ठान समाप्ति पर निकाला जाने वाला जुलूस ।
नौतरा प्रथा :-
वागड़ क्षेत्र के आदिवासी समाज में व्याप्त प्रथा। इसमें व्यक्ति की आर्थिक सहायता समाज के सभी लोग करते हैं। यह व्यक्ति का समाज द्वारा बीमा है।
बयौरी :-
हमेलो :-
जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं माणिक्य लाल वर्मा आदिम जाति शोध संस्थान, उदयपुर द्वारा आयोजि किया जाने वाला आदिवासी लोकानुरंजन मेला, जिसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों की कला एवं संस्कृति को सुरक्षित रखना, उनकी क्षमताओं को विकसित कर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना तथा इनमें आपसी समन्वयका भाव उत्पन्न करना है।
गाधोतरो :-
जब किसी गाँव में वहाँ के निवासियों से परेशान हो कोई पिछड़ी जाति गाँव छोड़ने का निर्णय लेती थी तो उस जाति के लोग गाय के सिर की पत्थर की मूर्ति उस गाँव में स्थापित कर जाति के सभी लोग गाँव छोड़ देते थे। इसे ही गाधोतरी कहते हैं।
हाथी वैण्डो प्रथा :-
भील समाज में प्रचलित अनूठी वैवाहिक परम्परा जिसमें पवित्र वृक्ष पीपल, साल, बाँस एवं सागवान के पेड़ों को साक्षी मानकर हरज व लाड़ी (दूल्हा-दुल्हन) जीवन साथी बन जाते हैं।
सह-पलायन प्रथा: -
भीलों में विवाह की सह-पलायन प्रथा विद्यमान है, जिसमें लड़के-लड़की भागकर 2-3 दिन बाद वापस आते है। तब गाँवों के लोगों द्वारा एकत्रित होकर उनके विवाह को मान्यता प्रदान कर दी जाती है। इसे अपहरण विवाह भी कहते हैं।
धारी संस्कार :-
मृत्यु के तीसरे दिन मृतक की अस्थियाँ व राख एकत्र कर रात्रि में साफ आँगन में बिछाकर ढक देते हैं. एवं दूसरे दिन उसे देखते हैं। यह मान्यता है कि इस राख में जिस आकृति के पदचिन्ह बनते हैं, मृतक उसी योनि में पुनर्जन्म लेता है। आकृति देखने के बाद अस्थियों एवं राख को सीताबाड़ी में स्थित बाणगंगा या कपिलधारा में प्रवाहित कर दिया जाता है। सहरिया समुदाय में इसे 'धारी संस्कार' कहते हैं।
कोंधिया या मेक :-
गरासिया समुदाय में मृत्यु भोज को इस नाम से पुकारते हैं।
आटा-साटा (अट्टा-सट्टा) :-
आदिवासियों में प्रचलित विवाह प्रथा जिसमें लड़की के बदले में उसी घर की लड़की को बहू के रूप में लेते हैं।
आणा करना (चुनरी ओढाणा) :-
अनाला भोर भूप्रथा : -
गरासिया जनजाति में नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा
सेवा विवाह :-
गरासियों में प्रचलित विवाह जिसमें वर-वधू के घर "घर जंवाई" बनकर रहता है।
खेवणा (माता विवाह) :-
विवाहित स्त्री द्वारा अपने प्रेमी के साथ भागकर विवाह करना ।
मेलबो विवाह :-
गरासियों में प्रचलित इस विवाह में विवाह खर्च बचाने के उद्देश्य से वधू को वर के घर छोड़ देते हैं।
कुकड़ी की रस्म :-
साँसी जाति की एक रस्म जिसके तहत् विवाहोपरान्त युवती को अपनी चारित्रिक पवित्रता की परीक्षा देनी होती है।
पामणा :-
वागड़ अंचल में पामणा या मेहमान होने की अत्यधिक गौरवशाली परम्परा देखने को मिलती है। 'पामणा' अतिथि सत्कार की विशेष परम्परा के रूप में रूढ़ हो गया है। पामणा विशेष कर होली, दीपावली तथा रक्षाबंधन के त्यौहारों पर देखने को मिलते हैं। होली के अवसर पर फाल्गुन माह में जनजाति समाज में ' ढूँढ' के पामणे विशेष महत्त्व के होते हैं। इसमें मधुर धुन में फाल्गुनी गीत गाते, नृत्य करते हुए पामणे बनकर जाते हैं। दीपावली के अवसर पर नई-नवेली दुल्हन को लेने दूल्हे पक्ष के लोग मेहमान या पामणे जाते हैं तथा अपने रस्म-रिवाज से दुल्हन को लेकर आते हैं। रक्षाबंधन के त्यौहार पर नई-नवेली दुल्हन के भाई सहित गाँव के अन्य बन्धु दुल्हन के ससुराल अपनी बहिन को लेने पामणे बनकर जाते हैं।
गरासिया जनजाति में विवाह एक संविदा होता है जिसका आधार 'वधू मूल्य' होता है। गरासियों में विवाह के मुख्य तीन प्रकार हैं :-
(1) मोरबंधिया विवाह: - यह ब्रह्म विवाह के समान है। इसमें वर-वधू के मोड़ (मौर) बाँधकर चंवरी (चौरी) में फेरे लेकर विवाह किया जाता है।
(2) ताणना (तारणा) विवाह : - इस प्रकार के विवाह में वर पक्ष समाज के पंचों द्वारा तय मूल्य पंचों को वैवाहिक भेंट के रूप में चुकाकर वर द्वारा पसंद कन्या को अपने घर ले आते हैं।
(3) पहरावना विवाह: - इस प्रकार के विवाह में ब्राह्मण की अनुपस्थिति में नाम मात्र के फेरे लेकर विवाह किया जाता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें