राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र
वाद्य यंत्र -
राजस्थान में चार प्रकार के वाद्य यंत्र होते हैं निम्न प्रकार है -
1. अवनद्ध या ताल वाद्य यंत्र
2. घन वाद्य यंत्र
3. तत् वाद्य यंत्र
4. सुषिर वाद्य यंत्र
अवनद्ध या ताल वाद्य -
इस श्रेणी में चमड़े से मढ़े हुए ताल-वाद्य आते हैं। ये निम्न हैं.
मृदंग या पखावज-
यह वाद्य बीजा, सवन, सुपारी और बड़ के पेड़ के तने से बनाया जाता है।
यह वाद्य रावल, भवाई और राबिया जाति नाच में काम लेती है।
ढोलक-
यह भी बीजा, सागवान, शीशम, नीम, सवन, सुपारी व बड़ के वृक्ष के तने को पोला कर बनाई जाती है।
ढोलक को नगारची, साँसी, कंजर, ढाढ़ी, मिरासी, कव्वाल, भवाई आदि जातियां बजाती हैं ।
ढोल -
यह लोहे अथवा लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों तरफ चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इस पर लगी रस्सियों को कड़ियों के सहारे खींचकर इसे कसा जाता है। वादक इसे गले में डालकर लकड़ी के डंडे से बजाता है। यह भी प्राचीन वाद्य है और नृत्य के साथ व स्वतंत्र रूप से भी बजाया जाता है। यह एक मांगलिक वाद्य है। यह थाली व बाँकिया के साथ बजाया जाता है।
नगाड़ा -
यह सुपारी के आकार का नौबत की भाँति होता है लेकिन नौबत से छोटा होता है। मांगलिक अवसरों, उत्सवों आदि पर इसके साथ शहनाई वादन भी होता है। सामान्यत: दो नगाड़े (छोटा एवं बड़ा) एक साथ बजाये जाते हैं।
नौबत -
इसका प्रयोग मंदिरों में या राजा महाराजाओं के महलों के मुख्य द्वार पर होता था। यह 3-4 फुट गहरी अर्द्ध अंडाकार कुंडी को भैंसे की खाल से मँडकर बनाया जाता है, जिसे लकड़ी के डंड़ों से बजाते हैं।
मांदल -
यह मृदंग की आकृति का मिट्टी से बना लोक वाद्य है, जो मोलेला गाँव (राजसमंद) में विशेषत: बनाया जाता है।
इसे शिव पार्वती का वाद्य मानते है।
इसका जोड़ थाली है।
इसे भील लोग गौरी नृत्य में बजाते है।
चंग-
यह लकड़ी का बना गोल वाद्य है, जिसे बाएँ हाथ से पकड़कर हृदय के पास स्थित कर दायें हाथ की थाप से शेखावाटी क्षेत्र में चंग नृत्य के साथ बजाया जाता है।
होली के दिनों में प्राय: सभी जाति के लोग इसे बजाते हैं।
डैंरू -
यह आम की लकड़ी का बनता है व डमरु का ही बड़ा रूप है। इसके साथ छोटी थाली या काँसी का कटोरा बजता है।
भील व गोगाजी के भोपे इसे बजाते हैं।
इसे बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ से लकड़ी की डंडी की सहायता से बजाया जाता है।
डमरू-
यह भगवान शिव का वाद्य है। यह अधिकतर मदारी लोगों द्वारा बजाया जाता है। इसके दोनों ओर चमड़ा मढ़ा रहता है और बीच के पतले हिस्से में दो गाँठ वाली रस्सियाँ बँधी होती हैं, जो कलाई के हिलाने पर चमड़े पर पड़कर आवाज करती हैं। इसके छोटे रूप को डुगडुगी कहते हैं।
खंजरी -
यह ढप का लघु आकार है, जो आम की लकड़ी की बनी होती है। निर्गुणी भजन करने वाले लोग इसको बजाते हैं, जैसे कामड़, आदिनाथ, बलाई, भील आदि। घुमन्तु कबीले व कालबेलिये भी इसको बजाते हैं।
धौंसा -
यह आम या फरास की लकड़ी के घेरे पर भैंसे की खाल मंढकर बनाया जाता है, जिसे लकड़ी के मोटे डंडों से बजाया जाता है। यह मुख्यतः दुर्ग या बड़े मंदिरों में बजाया जाता था।
तासा -
यह मिट्टी या लोहे के चपटे कटोरों पर बकरे की खाल मंढ़कर बनाया जाता है एवं गले में लटकाकर दो पतली डंडियों से बजाया जाता है। मुस्लिम समुदाय में अधिक प्रचिलत है।
दमामा (टामक) -
यह कढ़ाई के आकार का लोहे का बहुत बड़ा नगाड़ा है जो भैंसे की खाल से मंढ़ा जाता है। इसे दो बड़े व भारी डंडों से बजाया जाता है। यह मुख्य रूप से युद्ध के वाद्यों के साथ बजाया जाता था।
घेरा -
यह अष्ट भुजाकार होता है, जिस पर डफ की तरह एक ओर चमड़ा मंढा जाता है। लकड़ी के डंडे के ऊपरी पर कपड़ा लपेटकर इसे बजाते हैं। होली के अवसर पर फाग व होली गीत गाते समय इसे बजाते हैं।
डफ -
यह लोहे के गोल घेरे पर बकरे की खाल बढ़ाकर बना वाद्य है, जिसे एक हाथ में डंडा लेकर बजाया जाता है। यह भी होली के अवसर पर नृत्य करते समय प्रयुक्त होता है। इसी का छोटा रूप डफली होता है।
ढाक -
डेरू के समान वाद्य, जो उससे कुछ बड़ा होता है एवं गूजर जाति के लोगों द्वारा पैरों पर रखकर बजाया जाता है।
कुंडी -
इसे मिट्टी के छोटे बर्तन के ऊपरी भाग पर खाल मंढ़कर बनाते हैं। यह सिरोही क्षेत्र के गरासियों एवं मेवाड़ के जोगियों द्वारा दो छोटी छोटी लकड़ी की डंडियों की सहायता से बजाया जाता है। यह मांदल व थालों की संगत बजाया जाता है।
पाबूजी के माटे -
मिट्टी के दो बड़े बरतनों के मुख पर खाल चिपकाकर रस्सी से बांधकर यह वाद्य बनाया जाता है। दोनों माटो (नर एवं मादा) को अलग-अलग व्यक्ति बजाते हैं। माटों पर चोरी या नायक जाति के लोग पाबूजी के पवाड़े गाते हैं।
कमर -
लोहे की चद्दर को गोल कर चमड़े से मढ़कर बनाया गया वाह्य, जो अलवर, भरतपुर क्षेत्र में 3-4 व्यक्तियों द्वारा उसके चारों ओर खड़े होकर दोनों हाथों में डंडों की सहायता से बजाया जाता है।
माठ -
पाबूजी के पवाड़ों के गायन के समय बजाये जाने वाला वाद्ययंत्र है ।
घन वाद्य यंत्र
जिन वाद्यों में चोट या आघात से स्वर उत्पन्न होते हैं वे घन वाद्य कहलाते हैं। ये धातु निर्मित वाद्य यंत्र हैं, जो निम्र हैं -
मंजीरा -
यह पीतल व काँसे की मिश्रित धातु का गोलाकार वाद्य होता है जो हमेशा जोड़े में बजाया जाता है। कामड़ जाति को महिलाएँ इससे तेरहताली नृत्य करती हैं। ये भक्ति कीर्तन आदि में ढोलक के साथ बहुतायत से बजाये जाते हैं।
थाली -
यह काँसे की बनी होती है। इसे प्राय: कालबेलिया, भील, बाहेती बजाते हैं। इसका प्रयोग चरी नृत्य में भी होता है।
झांझ -
यह मंजीर की बड़ी अनुकृति है। शेखावाटी अंचल में कच्छी घोड़ी नृत्य में इसका इस्तेमाल होता है।
करताल -
इसमें दो चौकोर लकड़ी के टुकड़ों के बीच में पीतल की छोटी-छोटी गोल तश्तरियाँ लगी रहती हैं, जो कि लकड़ी के टुकड़ों को परस्पर टकराने के साथ मधुरता से झंकृत होती हैं। यह वाद्य हाथ की अंगुलियों एवं अंगूठे में पहनकर बजाया जाता है। यह वाद्य साधु सन्तों के भजनों में काम आने वाला साज है।
घण्टा (घड़ियाल) -
पीतल या अन्य धातु का गोलाकार वाद्य, जिसे डोरी से लटकाकर हथौड़े या इसके अंदर लटके हुए डंडे से चोट
कर बजाया जाता है। इसका प्रयोग मंदिरों में किया जाता है। इसी का छोटा रूप घण्टी कहलाता है।
चिमटा-
लोहे की दो पतली पट्टिकाओं से मिलकर बने इस वाद्य में पट्टियों के बीच में लोहे की गोल-गोल छोटी पत्तियाँ लगा दी जाती हैं। इसे बायें हाथ में पकड़कर दाएँ हाथ की अंगुलियों से भजन कीर्तन के समय बजाया जाता है।
भरनी -
मिट्टी के मटके के संकरे मुँह पर कांसे की प्लेट बँककर दो डंडियों की सहायता से बजाया जाने वाला वाद्य यह मुख्यतः
राजस्थान के पूर्वी क्षेत्र में सर्प के काटे हुए का लोक देवताओं के यहाँ इलाज करते समय बजाया जाता है।
झालर -
कांसे या ताँबे की मोटी चक्राकार प्लेट (तश्तरी), जिस पर लकड़ी की डंडी से चोट कर बजाया जाता है। मंदिरों में सुबह शाम आरती के समय मुख्यतः प्रयुक्त होती है।
घड़ा -
मिट्टी का घड़ा, जिसका मुँह छोटा होता है, वादक उसे दोनों हाथों में उठाकर मुँह से उसके अंदर फूंक मारते हुए उसे
अपने अंदाज में हिलाता रहता है जिससे मधुर संगीत निकलता है।
घुघरु -
छोटे पीतल या कांसे के गोल (घण्टाकार) वाद्य, जिनके अंदर लोहे के छोटे गोल छरें या कंकड़ रहते हैं। नृत्य समय इन्हें पैरों में बाँधा जाता है, जिससे मोहक ध्वनि उत्पन्न होती है।
गरासियों की लेजिम -
यह बाँस का एक धनुषाकार टुकड़ा होता है, जिसके साथ लगी जंजीर में पीतल की छोटी-छोटी गोलाकर पत्तियाँ होती हैं, जिसे हिलाने पर झनझनाहट की ध्वनि निकलती है। गरासिया लोग नृत्य के साथ इसका प्रयोग करते हैं।
घुरालियौ -
यह पाँच-छ: अंगुल लम्बी बाँस की खपच्ची से बना हुआ वाद्य है जिसके एक ओर छीलकर मुख पर धागा बाँध दिया जाता है। इसे दाँतों के बीच दबाकर धागे को ढील व तनाव देकर बजाया जाता है। यह कालबेलिया व गरासिया जाति का प्रमुख वाद्य हैं।
रमझोल -
चमड़े की पट्टी पर बहुत सारे छोटे-छोटे घुँघर सिले होते हैं, जिन्हें दोनों पैरों पर नृत्य करते समय घुटनों तक बांधा जाता है. ऐसे ही रमझोल कहते हैं। होली पर गैर नृत्य करने वाले एवं उदयपुर जिले में भील लोग चक्राकार नृत्यों में इसका प्रयोग करते हैं।
खड़ताल -
लकड़ी के चार छोटे-छोटे चिकने एवं पतले टुकड़ों से बना यह वाद्य दोनों हाथों में लेकर बजाया जाता है। मांगणियार
गायक इसे मुख्यतः प्रयुक्त करते हैं।
स्व. सादीक खाँ मांगणियार इसका प्रसिद्ध वादक था।
तत् वाद्य -
जिन वाद्यों में तारों के द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती है वे तार या तंतु या तत् वाद्य कहलाते हैं। इनमें से जिन्हें गज की सहायता से बजाया जाता है ये वितत वाद्य कहलाते हैं, जैसे इसराज, सारंगी आदि।
सारंगी -
यह तत् वाद्यों में सर्वश्रेष्ट वाद्य है। यह सागवान की लकड़ी की बनाई जाती है। इसका वादन गज से किया जाता है। शास्त्रीय संगीत में गायन की संगति के लिए मुख्य रूप से इसका प्रयोग किया जाता है। लंगा जाति के गायक मुख्यत: सारंगी बजाते हुए गाते है। इसके तार बकरे को औत के बनते हैं एवं गज में घोड़े की पूँछ के बाल बंध होते हैं।
इकतारा -
इसे आदि वाद्य माना गया है व इसका संबंध नारद जी से जोड़ा जाता है। इकतारा एक हाथ की अंगुली से ही बजाया जाता है। दूसरे हाथ में करताल रखी जाती है। इसे नाथ, साधु सन्यासी भजन मंडली आदि में बजाते है।
रावणहत्था -
यह राजस्थान का बहुत ही प्रचलित व अति प्राचीन वाद्य है। यह नारियल के खोल पर बकरे का चमड़ा चढ़ा कर बनाया जाता है। इस वाद्य को दायें हाथ से गज द्वारा व बाएँ हाथ की अंगुलियों से बजाया जाता है। गज में घुंघरू बंधे होते हैं। रावणहत्था पाबूजी, ड़ुगरजी-झुंवारजी के भोपे बजाते हैं ।
जन्तर -
यह वाद्य वीणा का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। इसकी आकृति वीणा जैसा ही होती है। इसका वादन खड़े होकर गले में लटकाकर किया जाता है। इसका मुख्य रूप से प्रयोग भगड़ावतो की कथा कहने वाले गुजर भोपे करते हैं।
कामायचा -
यह सांरंगी के समान एक लोक वाद्य है, जिसे रेगिस्तानी इलाके में मांगणियार जाति के पेशेवर लोकगायक बजाते हैं। नाथपंथो साधु भी भर्तृहरि एवं गोपीचंद की कथा के गीत कामायचा पर गाते हैं। कामायचा एक ईरानी वाद्य भी है।
भपंग -
डमरू की आकृति से मिलता जुलता यह वाद्य तुम्बे से बनता है। अलवर जिले के जोगी जाति के लोग भपंग वाद्य यंत्र के साथ पाण्डन का कड़ा, राजा भर्तृहरि, भगत पूरणमल, हीर रांझा एवं गोगा पीर की लोकगाथाएँ गाते हैं।
तन्दूरा (तम्बूरा) -
इसे 'वेणों' भी कहते हैं। इसमें चार तार होते व शक्ल तानपुरे के समान किन्तु उससे कुछ छोटी होती है। इसे कामड़ जाति के लोग अंगुलियों में मिजराब पहनकर अधिक बजाते है।
रबाज -
यह कामायचे की तरह होता है परन्तु इसमें गज काम में नहीं लाई जाती बल्कि अंगुली के नाखूनों से बजाया जाता है। यह वाह्य मेवाड़ के रावल व भाट जाति के लोग 'रम्मत लोक नाट्य' में बजाते हैं। पाबूजी की लोक गाथा गाने वाले 'नायक' या ' भील' जाति के लोगों द्वारा भी यह बजाया जाता है।
रबाब -
यह अलवर व टोक क्षेत्र में बजाया जाता है। मेवों के भाटों का यह प्रमुख वाद्य है। इसमें तांत के बने मुख्य चार तार होते हैं।
चिकारा -
कैर की लकड़ी से बने इस बाह्य का एक सिरा प्याले के आकार का होता है जिसमें तीन तार होते है। यह छोटी गज की सहायता से बजाया जाता है। यह मुख्यत: अलवर भरतपुर क्षेत्र जोगियों द्वारा पौराणिक आख्यानों या लोकगाथाओं के गायन के साथ बजाया जाता है।
गुजरी -
यह रावणहत्था से थोड़ा छोटा उसी प्रकार का वाद्य है, जिसकी गज अद्धचन्द्राकार होती है तथा इसमें केवल पांच तर ही होते हैं। इसमें केवल पास तारी होते हैं।
सुरिन्दा -
लंगा जाति द्वारा सतारा एवं मुरला को संगत में यह बाध बजाया जाता है। इसे गायन के साथ नहीं बजाते हैं। यह रोहिड़ा की लकड़ी का बना होता है इसकी गज पर घूंगरू बंदे होते हैं।
दुकाको -
भील समुदाय द्वारा मुख्यत: दीपावली पर बजाया जाता है। यह घुटनों के बीच में दबाकर बजाया जाता है।
सुरमण्डल -
दो ढाई फुट लम्बा यह वाद्य मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में बजाया जाता है।
सुघिर वाद्य
जो वाद्य फूंक कर बजाए जाते हैं, उन्हें सुपिर वाद्य कहा जाता है। ये निम्र है : -
बाँसुरी -
इस पोली नली में स्वरों के लिए सात छेद बनाए जाते हैं, जो स्वरों की शुद्धता के लिए निश्चित दूरी पर बने होते हैं।
अलगोजा -
यह नकसांसी से बजता है। मीणा आदिवासियों व ग्रामीणों में इसका विशेष प्रचलन है। वादक दो अलगोजे मुँह में रखकर एक साथ बजाता है। इसमें चार छेदी वाली दो बांसुरी होती है।
शहनाई (नफीरो) -
सुसिर वाद्यों में सर्वश्रेष्ठ, सुरीला व मांगलिक वाद्य है, जो शीशम या सागवान की लकड़ी से बनाया जाता है। इसका आकार चिलम के समान होता है और इसमें 8 छेद होते हैं। इसकी ध्वनि अत्यन्त तीक्ष्ण च मधुर होती है। इसे सदैव दो वादक एक साथ बजाते हैं। इसके साथ ताल के लिए नगाड़ों की संगत की जाती है। यह मुख्यतः विवाहोत्सव में बजाई जाती है। विस्मिल्ला खाँ प्रमुख शहनाई वादक थे इसे सुन्दरी भी कहा जाता है।
पुंगी (बीन) -
यह छोटी लॉकों के तुम्बे की बनी होती है। तुम्बे के निचले हिस्से में छेदकर दो नलियाँ लगाई जाती हैं जिनमें स्वरो के छेद होते हैं। यह भी तकसाँसी (नाक से साँस लेकर) से बजाई जाती है। इस वाद्य की कालबेलिया बजाते हैं। सांप को मोहित करने के लिए अद्भुत शक्ति होती है । कालबेलिया स्त्रियों के लिए नृत्य के समय भी इसे बजाते हैं।
मशक -
यह बकरी के चमड़े की बनी होती है। इसमें एक मुँह से हवा भरते हैं तथा दूसरी ओर दो कलियों से हवा निकलती है।
बाकियों -
इसको आवाज पुंगी की तरह ही होती है और नकसाँसी की सहायता से बजाते हैं। भैरुजी के भोपे इसे बजाते हैं। यह पीतल का बना बिगुल की शक्ल का साज है जो सरगड़ों का खानदानी वाद्य है। इसके साथ ढोल व कांसी की थाली बजाई जाती है। यह शादी विवाहादि में बजाया जाता है।
भूंगल -
यह मेवाड़ के भवाइयों का वाद्य है जो गाँव में खेल शुरू करने से पहले जनता को एकत्रित करने के लिए बजाया जाता है। यह पीतल की लम्बी नली की बनी होती है। विगुल की भांति यह राम का वाद्य रहा है।
सतारा -
यह अलगोजा, बांसुरी और शहनाई का समन्वित वाद्य है। जैसलमेर-बाड़मेर के जनजाति के लोग गड़रिए मेघवाल और मुस्लिम इसे बजाते है। इसमें भी दो बाँसुरियाँ होती है जिन्हें एक साथ फूंककर बजाया जाता है।
नड़ -
मरु प्रदेश के इलाके का यह अत्यन्त दुर्लभ साज है। नङ कगौर वृक्ष को 1 मीटर लंबी प्राकृतिक लकड़ी से बनाया जाता है । माता या भैरव का गुणगान करने वाले राजस्थानी भोपे इसे बजाते है ।लंगा गायक एवं ऊँठो के रेवड़ वाले ओरठिया द्वारा भी यह प्रयुक्त किया जाता है ।
मोरचंग -
लोहे का छोटा सा वाद्य, जिसे होटों के बीच में रखकर बजाया जाता है। रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक प्रचलित है।
करणा -
यह पोतल का 7-8 लंबा नोकादार वाद्य है। इसके सकड़ मुंह पर एक छेद होता है जिसमें सुरनाई जैसी नली होती है। प्राचीन काल में यह रण क्षेत्र एवं राज्य दरबारों में प्रयुक्त किया जाता था।
तुरही -
यह पीतल की बनी होती है, जिसका एक मूह छाटा, आकृति नोकदार तथा दूसरा मुंह सोडा होता है । यह मुख्यतः दुर्गा एवं युद्ध स्थलों में बजायी जाती थी।
नागफणी -
मंदिरों एवं साधु सन्यासियों द्वारा मुख्यत: बजाये जाने वाला यह वाद्य पीतल की सर्पाकार नली का होता है, जिसके पिछले हिस्से में एक छेद होता है।
मुरला या मुरली -
यह पूंगी का परिष्कृत रूप है जो नलीदार तुम्बे के नीचे चौड़े वाले भाग में दो बाँस की नलियाँ फँसाकर बनाया जाता है। एक नली से ध्वनि तथा दूसरी से स्वर निकलते हैं। लंगा जाति के कलाकार इसे बजाते हैं।
सींगा -
मुख्यतः साधु-सन्यासियों द्वारा प्रयुक्त यह वाद्य धनुषाकार पीतल की नली का बना होता है, जिसे पिछले भाग के छेद
में फूंक मारकर बजाया जाता है।
सींगी -
हिरण, बारहसिंगा या भैंसे के सींग से बना यह वाद्य होठों पर रखकर कण्ठ से उत्पन्न ध्वनि से बजाया जाता है। प्रायः जोगी इसे अधिक बजाते हैं।
सुरनाई -
ढोली व लंगा जाति द्वारा विवाह व मांगलिक अवसरों पर बजाया जाने वाला यह वाद्य शहनाई के समान होता है। इसके मुख पर खजूर, ताड़ या कगोर वृक्ष का सरकंडा लगाया जाता है। इसे गीला कर बजाया जाता है। इसे जोगी, ढाढी व नगाड़ची भी बजाते है । भिन्न-भिन्न रूपों में यह समस्त राजस्थान में प्रयुक्त होती है ।
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